Friday, July 12, 2024

आज दिल कुछ सूना सूना है


A poem I wrote inspired by the light and shadows as I sit in the living room sometimes in the late evening hours. First it was just the words, then narration and then putting it together with pictures....

आज दिल कुछ सूना सूना है
बेवजह मुड ही कूछ ऐसा है
सोफे पे पडे, शाम के साये
देखता हुं देर तक अंधराते 

यू तो अब वक्त हो गया है
बत्तीयोंके शोंख उजालों का
पर शाम रात मे घुल गई 
और बत्तिया जलने से रही

बस युही यहापर लेटे लेटे
याद आती हैं वो गुजरी शामे
आहटे आते जाते पैरोंकी
आवाजें हसने गुनगुनानेकी

रसोई से लेहराती खुशबूए 
बर्तनोंकी की खडखडाहट
कही नल से बेहता पानी
हर आवाज जानी पेहचानी

आखिर घर घर नहीं होता
दिवारें, दरवाजें, झरोखोंसे 
सोफा, टीव्ही, रंगिन परदोंसे
तसबिरोंसे, चूनींदे पौधोंसे

घर जिता है, सांसे लेता है
किसीके ऊसमे होने से
घरका घरपन मेहसुस होता है
किसिके होनेके ऐहसास से

अब लगता है घर खो बैठा है
अपनी जिंदा धडकती रुह
बाकी है कुछ बेजान चीजे
जिनमे शायद मैं भी एक हुं 

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